श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 12: श्रीराम आदि का अगस्त्य के आश्रम में प्रवेश, अतिथि-सत्कार तथा मुनि की ओर से उन्हें दिव्य अस्त्र-शस्त्रों की प्राप्ति  »  श्लोक 28-29
 
 
श्लोक  3.12.28-29 
 
 
प्रथमं चोपविश्याथ धर्मज्ञो मुनिपुंगव:।
उवाच राममासीनं प्राञ्जलिं धर्मकोविदम्॥ २८॥
अग्निं हुत्वा प्रदायार्घ्यमतिथिं प्रतिपूजयेत्।
अन्यथा खलु काकुत्स्थ तपस्वी समुदाचरन्।
दु:साक्षीव परे लोके स्वानि मांसानि भक्षयेत्॥ २९॥
 
 
अनुवाद
 
  धर्म के ज्ञाता महर्षि अगस्त्य पहले स्वयं बैठे, फिर धर्मज्ञ श्री रामचंद्र जी ने हाथ जोड़कर आसन पर विराजमान हुए। इसके बाद महर्षि ने उनसे कहा - "काकुत्स्थ! वानप्रस्थ को चाहिए कि वह सबसे पहले अग्नि को आहुति दे। तत्पश्चात् अर्घ्य देकर अतिथि का पूजन करे। जो तपस्वी इसके विपरीत आचरण करता है, उसे झूठी गवाही देने वाले की तरह परलोक में अपने ही शरीर का मांस खाना पड़ता है।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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