धर्म के ज्ञाता महर्षि अगस्त्य पहले स्वयं बैठे, फिर धर्मज्ञ श्री रामचंद्र जी ने हाथ जोड़कर आसन पर विराजमान हुए। इसके बाद महर्षि ने उनसे कहा - "काकुत्स्थ! वानप्रस्थ को चाहिए कि वह सबसे पहले अग्नि को आहुति दे। तत्पश्चात् अर्घ्य देकर अतिथि का पूजन करे। जो तपस्वी इसके विपरीत आचरण करता है, उसे झूठी गवाही देने वाले की तरह परलोक में अपने ही शरीर का मांस खाना पड़ता है।"