श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 11: पञ्चाप्सर तीर्थ एवं माण्डकर्णि मुनि की कथा, विभिन्न आश्रमों में घूमकर श्रीराम आदि का सुतीक्ष्ण के आश्रम में आना तथा अगस्त्य के प्रभाव का वर्णन  »  श्लोक 85
 
 
श्लोक  3.11.85 
 
 
मार्गं निरोद‍्धुं सततं भास्करस्याचलोत्तम:।
संदेशं पालयंस्तस्य विन्ध्यशैलो न वर्धते॥ ८५॥
 
 
अनुवाद
 
  एक समय था जब महान पर्वत विंध्य ने सूर्य के मार्ग को रोकने का प्रयास किया था। किंतु महर्षि अगस्त्य के कहने पर वह नम्र हो गया। तब से लेकर आज तक निरंतर उनके आदेश का पालन करते हुए वह कभी नहीं बढ़ता है॥ ८५॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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