मार्गं निरोद्धुं सततं भास्करस्याचलोत्तम:।
संदेशं पालयंस्तस्य विन्ध्यशैलो न वर्धते॥ ८५॥
अनुवाद
एक समय था जब महान पर्वत विंध्य ने सूर्य के मार्ग को रोकने का प्रयास किया था। किंतु महर्षि अगस्त्य के कहने पर वह नम्र हो गया। तब से लेकर आज तक निरंतर उनके आदेश का पालन करते हुए वह कभी नहीं बढ़ता है॥ ८५॥