श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 11: पञ्चाप्सर तीर्थ एवं माण्डकर्णि मुनि की कथा, विभिन्न आश्रमों में घूमकर श्रीराम आदि का सुतीक्ष्ण के आश्रम में आना तथा अगस्त्य के प्रभाव का वर्णन  »  श्लोक 56-57
 
 
श्लोक  3.11.56-57 
 
 
धारयन् ब्राह्मणं रूपमिल्वल: संस्कृतं वदन्।
आमन्त्रयति विप्रान् स श्राद्धमुद्दिश्य निर्घृण:॥ ५६॥
भ्रातरं संस्कृतं कृत्वा ततस्तं मेषरूपिणम्।
तान् द्विजान् भोजयामास श्राद्धदृष्टेन कर्मणा॥ ५७॥
 
 
अनुवाद
 
  निर्दयी इल्वल ब्राह्मण का रूप धारण करके संस्कृत में बोलता हुआ जाता और श्राद्ध के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित करता था। फिर मेष (बकरा) का रूप धारण करनेवाले अपने भाई वातापि को संस्कार करके श्राद्ध के नियमों के अनुसार ब्राह्मणों को खिला देता था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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