श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 10: श्रीराम का ऋषियों की रक्षा के लिये राक्षसों के वध के निमित्त की हुई प्रतिज्ञा के पालन पर दृढ़ रहने का विचार प्रकट करना  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  3.10.2 
 
 
हितमुक्तं त्वया देवि स्निग्धया सदृशं वच:।
कुलं व्यपदिशन्त्या च धर्मज्ञे जनकात्मजे॥ २॥
 
 
अनुवाद
 
  देवि! अधर्म से रहित आपने मेरे हित के लिए सुंदर वचन कहे हैं। क्षत्रियों के कुलधर्म का उपदेश देते हुए आपने जो कुछ कहा है, वही आप जैसे धर्मज्ञ के लिए उचित है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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