श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 3: अरण्य काण्ड  »  सर्ग 1: श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का तापसों के आश्रम मण्डल में सत्कार  »  श्लोक 18-20h
 
 
श्लोक  3.1.18-20h 
 
 
निवेदयित्वा धर्मज्ञास्ते तु प्राञ्जलयोऽब्रुवन्।
धर्मपालो जनस्यास्य शरण्यश्च महायशा:॥ १८॥
पूजनीयश्च मान्यश्च राजा दण्डधरो गुरु:।
इन्द्रस्यैव चतुर्भाग: प्रजा रक्षति राघव॥ १९॥
राजा तस्माद् वरान् भोगान् रम्यान् भुङ्‍क्ते नमस्कृत:।
 
 
अनुवाद
 
  धर्मज्ञ मुनियों ने सब कुछ निवेदन करके हाथ जोड़कर बोला - ‘रघुनन्दन! दण्ड धारण करने वाला राजा धर्म का पालन करने वाला होता है। उसकी बहुत ख्याति होती है। वह लोगों का शरणदाता और पूजनीय होता है। वह सभी का गुरु होता है। पृथ्वी पर इंद्र (आदि लोकपालों) का ही चौथा अंश होने के कारण वह प्रजा की रक्षा करता है। इसलिए राजा की सब लोग वंदना करते हैं और वह उत्तम और मनभावन भोगों का उपभोग करता है। (जब एक साधारण राजा की ऐसी स्थिति है, तो आपके लिए क्या कहना है, आप तो साक्षात भगवान हैं)।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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