श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 88: श्रीराम की कुश-शय्या देखकर भरत का स्वयं भी वल्कल और जटाधारण करके वन में रहने का विचार प्रकट करना  »  श्लोक 24-25
 
 
श्लोक  2.88.24-25 
 
 
शून्यसंवरणारक्षामयन्त्रितहयद्विपाम्।
अनावृतपुरद्वारां राजधानीमरक्षिताम्॥ २४॥
अप्रहृष्टबलां शून्यां विषमस्थामनावृताम्।
शत्रवो नाभिमन्यन्ते भक्ष्यान् विषकृतानिव॥ २५॥
 
 
अनुवाद
 
  इस समय अयोध्या के चारों ओर रक्षा का कोई प्रबंध नहीं है। हाथी और घोड़े बंधे नहीं रहते, खुले घूमते रहते हैं। नगर द्वार का फाटक खुला रहता है। पूरी राजधानी असुरक्षित है। सेना में हर्ष और उत्साह का अभाव है। सारी नगरी रक्षकों से सूनी-सी मालूम पड़ती है। संकट में पड़ी हुई है। रक्षकों के अभाव में आवरणरहित हो गई है। इसके बावजूद भी शत्रु विषमिश्रित भोजन की तरह इसे ग्रहण नहीं करना चाहते। श्री राम के बाहुबल से ही इसकी रक्षा हो रही है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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