श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 85: गुह और भरत की बातचीत तथा भरत का शोक  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  2.85.17 
 
 
अन्तर्दाहेन दहन: संतापयति राघवम्।
वनदाहाग्निसंतप्तं गूढोऽग्निरिव पादपम्॥ १७॥
 
 
अनुवाद
 
  जैसे जंगल में फैली आग से जलते हुए वृक्ष में पहले से ही आग लगी होती है और वह उसे और भी ज्यादा जलाती है, उसी प्रकार दशरथ जी की मृत्यु के कारण चिंता की आग से जलते हुए रघुकुल नंदन भरत को राम से वियोग के कारण होने वाली शोक की आग ने और भी अधिक जलाना शुरू कर दिया।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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