श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 78: शत्रुज का रोष, उनका कुब्जा को घसीटना और भरतजी के कहने से उसे मूर्च्छित अवस्था में छोड़ देना  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  2.78.25 
 
 
सा पादमूले कैकेय्या मन्थरा निपपात ह।
नि:श्वसन्ती सुदु:खार्ता कृपणं विललाप ह॥ २५॥
 
 
अनुवाद
 
  मन्थरा कैकेयी के चरणों में गिर पड़ी और साँसें भरती हुई दुःख से बेहद परेशान होकर करुण विलाप करने लगी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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