श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 72: भरत का कैकेयी से पिता के परलोकवास का समाचार पा दुःखी हो विलाप करना,कैकेयी द्वारा उनका श्रीराम के वनगमन के वृत्तान्त से अवगत होना  »  श्लोक 19-20
 
 
श्लोक  2.72.19-20 
 
 
एतत् सुरुचिरं भाति पितुर्मे शयनं पुरा।
शशिनेवामलं रात्रौ गगनं तोयदात्यये॥ १९॥
तदिदं न विभात्यद्य विहीनं तेन धीमता।
व्योमेव शशिना हीनमप्शुष्क इव सागर:॥ २०॥
 
 
अनुवाद
 
  "हाय! मेरे पिताजी की यह अत्यंत सुंदर शय्या पहले मानसून की रात में चंद्रमा से सुशोभित होने वाले निर्मल आकाश की भाँति शोभा पाती थी। परन्तु आज वही शय्या उस बुद्धिमान राजा के बिना चंद्रमा से रहित आकाश और सूखे हुए समुद्र के समान श्रीहीन प्रतीत हो रही है।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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