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श्रीमद् वाल्मीकि रामायण
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काण्ड 2: अयोध्या काण्ड
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सर्ग 69: भरत की चिन्ता, मित्रों द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास तथा उनके पूछने पर भरत का मित्रों के समक्ष अपने देखे हुए भयंकर दुःस्वप्न का वर्णन करना
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श्लोक 5
श्लोक
2.69.5
स तैर्महात्मा भरत: सखिभि: प्रियवादिभि:।
गोष्ठीहास्यानि कुर्वद्भिर्न प्राहृष्यत राघव:॥ ५॥
अनुवाद
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परंतु रघुकुलभूषण महात्मा भरत अपने प्रियवादी मित्रों के हास्यविनोदपूर्ण गोष्ठियों से भी खुश नहीं हुए।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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