श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 69: भरत की चिन्ता, मित्रों द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास तथा उनके पूछने पर भरत का मित्रों के समक्ष अपने देखे हुए भयंकर दुःस्वप्न का वर्णन करना  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  2.69.20 
 
 
न पश्यामि भयस्थानं भयं चैवोपधारये।
भ्रष्टश्च स्वरयोगो मे छाया चापगता मम।
जुगुप्सु इव चात्मानं न च पश्यामि कारणम्॥ २०॥
 
 
अनुवाद
 
  मैं भय का कोई कारण नहीं देखता, फिर भी मैं भय में हूँ। मेरी आवाज़ बदल गई है और मेरी चमक भी फीकी पड़ गई है। मुझे अपने-आप से घृणा होने लगी है, लेकिन इसका कारण मुझे समझ नहीं आ रहा है। मेरा स्वर योग भ्रष्ट हो गया है और मेरी छाया मुझसे दूर हो गई है। मैं अपने आप को घृणित मानने लगा हूँ परन्तु इसका कारण मैं नहीं समझ पा रहा हूँ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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