तत: प्रभातां रजनीमुदिते च दिवाकरे।
पुण्ये नक्षत्रयोगे च मुहूर्ते च समागते॥ २५॥
वसिष्ठो गुणसम्पन्न: शिष्यै: परिवृतस्तथा।
उपगृह्याशु सम्भारान् प्रविवेश पुरोत्तमम्॥ २६॥
अनुवाद
तब जैसे ही रात बीती, भोर हुई, सूर्यदेव उदित हुए और पुण्य नक्षत्र के योग में अभिषेक का शुभ मुहूर्त आ पहुँचा, उस समय विद्वानों से घिरे हुए शुभ गुणों से संपन्न महर्षि वसिष्ठ ने अभिषेक के लिए आवश्यक सामग्री एकत्र करके शीघ्रतापूर्वक उस श्रेष्ठ नगर में प्रवेश किया।