श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 111: श्रीराम को पिता की आज्ञा के पालन से विरत होते न देख भरत का धरना देने को तैयार होना तथा श्रीराम का उन्हें समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  2.111.29 
 
 
उपाधिर्न मया कार्यो वनवासे जुगुप्सित:।
युक्तमुक्तं च कैकेय्या पित्रा मे सुकृतं कृतम्॥ २९॥
 
 
अनुवाद
 
  वनवास के लिए मुझे किसी को प्रतिनिधि नहीं बनाना चाहिए; क्योंकि जब खुद की शक्ति हो, तो प्रतिनिधि से कार्य लेना समाज में निंदनीय माना जाता है। कैकेयी ने उचित माँग ही रखी थी और मेरे पिताजी ने उसे पूरा करके पुण्य का काम किया था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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