श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 1: बाल काण्ड  »  सर्ग 58: वसिष्ठ ऋषि के पुत्रों का त्रिशंकु को शाप-प्रदान, उनके शाप से चाण्डाल हुए त्रिशंकु का विश्वामित्रजी की शरण में जाना  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  1.58.24 
 
 
नान्यां गतिं गमिष्यामि नान्यच्छरणमस्ति मे।
दैवं पुरुषकारेण निवर्तयितुमर्हसि॥ २४॥
 
 
अनुवाद
 
  अब में सिवाय आपके और किसी की शरण में नहीं जाऊँगा। कोई दूसरा ऐसा है भी नहीं जो मुझे शरण दे। आप ही अपने प्रयासों से मेरे भाग्य को बदल सकते हैं।
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डेऽष्टपञ्चाश: सर्ग:॥ ५८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ५८॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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