श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 1: बाल काण्ड  »  सर्ग 57: विश्वामित्र की तपस्या, राजा त्रिशंकु का यज्ञ के लिये वसिष्ठजी से प्रार्थना करना,उनके इन्कार करने पर उन्हीं के पुत्रों की शरण में जाना  »  श्लोक 14-15
 
 
श्लोक  1.57.14-15 
 
 
वासिष्ठा दीर्घतपसस्तपो यत्र हि तेपिरे॥ १४॥
त्रिशङ्कुस्तु महातेजा: शतं परमभास्वरम्।
वसिष्ठपुत्रान् ददृशे तप्यमानान् मनस्विन:॥ १५॥
 
 
अनुवाद
 
  जहाँ वसिष्ठजी के वे पुत्र दीर्घकाल से तपस्या में प्रवृत्त होकर तप कर रहे थे, उस स्थान पर पहुँचकर महातेजस्वी त्रिशंकु ने देखा कि मन को वश में रखने वाले वे सौ परमतेजस्वी वसिष्ठ कुमार तपस्या में संलग्न हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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