सत्क्रियां हि भवानेतां प्रतीच्छतु मया कृताम्।
राजंस्त्वमतिथिश्रेष्ठ: पूजनीय: प्रयत्नत:॥ १४॥
अनुवाद
‘राजन! तुम अतिथि रूप में श्रेष्ठ हो, इसलिए पूरी श्रद्धा और यत्न के साथ तुम्हारा सत्कार करना मेरा कर्तव्य है, अतः मेरे द्वारा दिए जा रहे इस सत्कार को तुम स्वीकार करो।’