गंगा जी की धारा कभी तेज गति से बहती हुई, कभी टेढ़ी होकर मुड़ती हुई और कभी चौड़ी होकर फैलती हुई बहती थी। कहीं वह बिलकुल नीचे की ओर गिरती हुई प्रतीत होती थी, तो कहीं ऊँचे की ओर उठी हुई दिखाई देती थी। कहीं समतल भूमि पर वह धीरे-धीरे और सुकून से बहती थी, तो कहीं-कहीं अपने ही जल से उसके जल में बार-बार टक्करें लगती रहती थीं।