श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 1: बाल काण्ड  »  सर्ग 43: भगीरथ की तपस्या, भगवान् शङ्कर का गंगा को अपने सिर पर धारण करना, भगीरथ के पितरों का उद्धार  »  श्लोक 23-24
 
 
श्लोक  1.43.23-24 
 
 
क्वचिद् द्रुततरं याति कुटिलं क्वचिदायतम्॥ २३॥
विनतं क्वचिदुद्भूतं क्वचिद् याति शनै: शनै:।
सलिलेनैव सलिलं क्वचिदभ्याहतं पुन:॥ २४॥
 
 
अनुवाद
 
  गंगा जी की धारा कभी तेज गति से बहती हुई, कभी टेढ़ी होकर मुड़ती हुई और कभी चौड़ी होकर फैलती हुई बहती थी। कहीं वह बिलकुल नीचे की ओर गिरती हुई प्रतीत होती थी, तो कहीं ऊँचे की ओर उठी हुई दिखाई देती थी। कहीं समतल भूमि पर वह धीरे-धीरे और सुकून से बहती थी, तो कहीं-कहीं अपने ही जल से उसके जल में बार-बार टक्करें लगती रहती थीं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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