श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 1: बाल काण्ड  »  सर्ग 4: महर्षि वाल्मीकि का चौबीस हजार श्लोकों से युक्त रामायण का निर्माण करना , लव-कुश का अयोध्या में रामायण गान सुनाना  »  श्लोक 24-26h
 
 
श्लोक  1.4.24-26h 
 
 
जटाबन्धनमन्यस्तु काष्ठरज्जुं मुदान्वित:।
यज्ञभाण्डमृषि: कश्चित् काष्ठभारं तथापर:॥ २४॥
औदुम्बरीं बृसीमन्य: स्वस्ति केचित् तदावदन्।
आयुष्यमपरे प्राहुर्मुदा तत्र महर्षय:॥ २५॥
ददुश्चैवं वरान् सर्वे मुनय: सत्यवादिन:।
 
 
अनुवाद
 
  ऋषियों ने प्रसन्न होकर जटा बाँधने के लिए रस्सी दी और समिधा बाँधकर लाने के लिए डोरी प्रदान की। एक ऋषि ने यज्ञपात्र दिया तो दूसरे ने काष्ठभार समर्पित किया। कुछ ने गूलर की लकड़ी का बना हुआ पीढ़ा अर्पित किया। कुछ लोग उस समय आशीर्वाद देने लगे—‘बच्चो! तुम दोनों का कल्याण हो।’ दूसरे महर्षि प्रसन्नतापूर्वक बोल उठे—‘तुम्हारी आयु बढ़े।’ इस प्रकार सभी सत्यवादी मुनियों ने उन दोनों को नाना प्रकार के वर दिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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