श्री महाभारत  »  पर्व 7: द्रोण पर्व  »  अध्याय 158: दुर्योधन और कर्णकी बातचीत, कृपाचार्यद्वारा कर्णको फटकारना तथा कर्णद्वारा कृपाचार्यका अपमान  »  श्लोक 28-29
 
 
श्लोक  7.158.28-29 
व्यवसायद्वितीयोऽहं मनसा भारमुद्वहन्॥ २८॥
हत्वा पाण्डुसुतानाजौ सकृष्णान् सहसात्वतान्।
गर्जामि यद्यहं विप्र तव किं तत्र नश्यति॥ २९॥
 
 
अनुवाद
‘मैं मन से जो कार्य कर रहा हूँ, उसमें मेरा दृढ़ निश्चय ही सफलता में सहायक है। हे ब्राह्मण! यदि मैं युद्ध में कृष्ण और सात्यकि सहित समस्त पाण्डवों को मार डालने के निश्चय से गर्जना कर रहा हूँ, तो उसमें तुम्हें क्या हानि हो रही है?॥ 28-29॥
 
‘The task which I am carrying out with my mind, my firm determination is the only help in its success. Brahmin! If I am roaring with the determination to kill all the Pandavas including Krishna and Satyaki in the war, then what are you getting lost in that?॥ 28-29॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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