श्री महाभारत  »  पर्व 4: विराट पर्व  »  अध्याय 71: विराटको अन्य पाण्डवोंका भी परिचय प्राप्त होना तथा विराटके द्वारा युधिष्ठिरको राज्य समर्पण करके अर्जुनके साथ उत्तराके विवाहका प्रस्ताव करना  »  श्लोक 35-36
 
 
श्लोक  4.71.35-36 
एवमुक्तो धर्मराज: पार्थमैक्षद् धनंजयम्।
ईक्षितश्चार्जुनो भ्रात्रा मत्स्यं वचनमब्रवीत्॥ ३५॥
प्रतिगृह्णाम्यहं राजन् स्नुषां दुहितरं तव।
युक्तश्चावां हि सम्बन्धो मत्स्यभारतयोरपि॥ ३६॥
 
 
अनुवाद
राजा विराट की यह बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने कुन्तीपुत्र अर्जुन की ओर देखा। अपने भाई को देखकर अर्जुन ने मत्स्यराज से इस प्रकार कहा - 'हे राजन! मैं आपकी पुत्री को अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूँ। मत्स्य और भरत कुल का यह सम्बन्ध सर्वथा उचित है।' ॥35-36॥
 
On hearing this from King Virat, Dharmaraja Yudhishthira looked at Kunti's son Arjuna. On seeing his brother, Arjuna said to Matsyaraja in this manner - 'O King! I accept your daughter as my daughter-in-law. This relationship between Matsya and Bharata clan is absolutely appropriate'. ॥ 35-36॥
 
इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि वैवाहिकपर्वणि उत्तराविवाहप्रस्तावे एकसप्ततितमोऽध्याय:॥ ७१॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्वके अन्तर्गत वैवाहिकपर्वमें उत्तराविवाहप्रस्तावविषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ७१॥

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३७ श्लोक हैं।)
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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