श्री महाभारत  »  पर्व 3: वन पर्व  »  अध्याय 28: द्रौपदीद्वारा प्रह्लाद-बलि-संवादका वर्णन—तेज और क्षमाके अवसर  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  3.28.18 
मित्रै: सह विरोधं च प्राप्नुते तेजसाऽऽवृत:।
आप्नोति द्वेष्यतां चैव लोकात् स्वजनतस्तथा॥ १८॥
 
 
अनुवाद
उत्तेजना से भरा हुआ मनुष्य अपने मित्रों में ही शत्रुता उत्पन्न कर लेता है और सामान्य लोगों तथा सम्बन्धियों की घृणा का पात्र बन जाता है ॥18॥
 
A person filled with excitement creates enmity among his friends and becomes the object of hatred of ordinary people and relatives. ॥18॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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