श्री महाभारत  »  पर्व 3: वन पर्व  »  अध्याय 262: दुर्योधनका महर्षि दुर्वासाको आतिथ्यसत्कारसे संतुष्ट करके उन्हें युधिष्ठिरके पास भेजकर प्रसन्न होना  »  श्लोक 18-21h
 
 
श्लोक  3.262.18-21h 
प्रागेव मन्त्रितं चासीत् कर्णदु:शासनादिभि:।
याचनीयं मुनेस्तुष्टादिति निश्चित्य दुर्मति:॥ १८॥
अतिहर्षान्वितो राजन् वरमेनमयाचत।
शिष्यै: सह मम ब्रह्मन् यथा जातोऽतिथिर्भवान्॥ १९॥
अस्मत्कुले महाराजो ज्येष्ठ: श्रेष्ठो युधिष्ठिर:।
वने वसति धर्मात्मा भ्रातृभि: परिवारित:॥ २०॥
गुणवान् शीलसम्पन्नस्तस्य त्वमतिथिर्भव।
 
 
अनुवाद
यदि ऋषि संतुष्ट हो जाएँ, तो फिर क्या माँगना चाहिए? इस विषय में वे कर्ण और दु:शासन आदि से पहले ही चर्चा कर चुके थे। हे राजन! उस निर्णय के अनुसार दुष्टबुद्धि दुर्योधन ने बड़ी प्रसन्नता से यह वर माँगा - 'ब्राह्मण! महाराज युधिष्ठिर हमारे कुल में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हैं। इस समय वे धर्मात्मा पाण्डुपुत्र अपने भाइयों के साथ वन में रहते हैं। युधिष्ठिर बड़े ही धर्मात्मा और सदाचारी हैं। जिस प्रकार आप मेरे अतिथि थे, उसी प्रकार आप भी अपने शिष्यों सहित उनके अतिथि बनें।'
 
If the sage is satisfied, then what should he ask for? He had already discussed this with Karna and Dushasan etc. O King! According to that decision, the evil-minded Duryodhan asked for this boon very happily - 'Brahmin! Maharaj Yudhishthira is the eldest and the best in our clan. At present, that virtuous son of Pandu lives in the forest with his brothers. Yudhishthira is very virtuous and well behaved. Just as you were my guest, in the same way you should be their guest along with your disciples.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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