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श्लोक 3.159.9  |
यथार्हं मानिता: कच्चित् त्वया नन्दन्ति साधव:।
वनेष्वपि वसन् कच्चिद् धर्ममेवानुवर्तसे॥ ९॥ |
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अनुवाद |
क्या तुम्हारे द्वारा विधिपूर्वक सत्कार किए जाने पर भी संतजन तुम पर प्रसन्न रहते हैं? क्या तुम वन में रहते हुए भी सदैव धर्म के मार्ग पर चलते हो?॥9॥ |
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‘Do the saints remain pleased with you after being duly honoured by you? Do you always follow the path of Dharma even while living in the forest?॥ 9॥ |
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