श्री महाभारत  »  पर्व 3: वन पर्व  »  अध्याय 159: प्रश्नके रूपमें आर्ष्टिषेणका युधिष्ठिरके प्रति उपदेश  »  श्लोक 12-13
 
 
श्लोक  3.159.12-13 
स्वे स्वे किल कुले जाते पुत्रे नप्तरि वा पुन:।
पितर: पितृलोकस्था: शोचन्ति च हसन्ति च॥ १२॥
किं तस्य दुष्कृतेऽस्माभि: सम्प्राप्तव्यं भविष्यति।
किं चास्य सुकृतेऽस्माभि: प्राप्तव्यमिति शोभनम्॥ १३॥
 
 
अनुवाद
कहते हैं कि जब भी उनके कुल में पुत्र या पौत्र का जन्म होता है, तो पितृलोक में रहने वाले पितर शोक भी करते हैं और हँसते भी हैं। वे यह सोचकर शोक करते हैं कि, ‘क्या हमें उसके पापों का भागी होना पड़ेगा?’ और वे यह सोचकर हँसते हैं कि, ‘क्या हमें उसके पुण्यों का कुछ भाग मिलेगा? यदि ऐसा हो जाए, तो बहुत अच्छा होगा।’॥12-13॥
 
‘It is said that whenever a son or grandson is born in their family, the ancestors living in Pitriloka grieve and also laugh. They grieve thinking, ‘Will we have to share in his sins?’ And they laugh because they think, ‘Will we get some share in his virtues? If this happens, it will be a very good thing.’॥ 12-13॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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