श्री महाभारत  »  पर्व 3: वन पर्व  »  अध्याय 159: प्रश्नके रूपमें आर्ष्टिषेणका युधिष्ठिरके प्रति उपदेश  »  श्लोक 10-11
 
 
श्लोक  3.159.10-11 
कच्चिद् धौम्यस्त्वदाचारैर्न पार्थ परितप्यते।
दानधर्मतप:शौचैरार्जवेन तितिक्षया॥ १०॥
पितृपैतामहं वृत्तं कच्चित् पार्थानुवर्तसे।
कच्चिद् राजर्षियातेन पथा गच्छसि पाण्डव॥ ११॥
 
 
अनुवाद
'पार्थ! पुरोहित धौम्यजी को आपके आचरण से दुःख नहीं होता? कुन्तीनन्दन! क्या आप दान, धर्म, तप, शौच, सरलता और क्षमा आदि द्वारा अपने पूर्वजों के आचरण और व्यवहार का अनुसरण करते हैं? पाण्डुनन्दन! प्राचीन ऋषियों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया है, क्या आप भी उसी मार्ग का अनुसरण करते हैं? 10-11॥
 
'Parth! Priest Dhaumyaji doesn't feel distressed by your conduct? Kuntinandan! Do you follow the conduct and behavior of your forefathers through charity, religion, penance, cleanliness, simplicity and forgiveness etc.? Pandunandan! The path which the ancient sages have followed, do you also follow the same path? 10-11॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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