श्री महाभारत » पर्व 3: वन पर्व » अध्याय 128: सोमकको सौ पुत्रोंकी प्राप्ति तथा सोमक और पुरोहितका समानरूपसे नरक और पुण्यलोकोंका उपभोग करना » श्लोक 12-d1h |
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| | श्लोक 3.128.12-d1h  | तमब्रवीद् गुरु: सोऽथ पच्यमानोऽग्निना भृशम्।
त्वं मया याजितो राजंस्तस्येदं कर्मण: फलम्॥ १२॥
एतच्छ्रुत्वा स राजर्षिर्धर्मराजमथाब्रवीत्।
अहमत्र प्रवेक्ष्यामि मुच्यतां मम याजक:॥ १३॥
मत्कृते हि महाभाग: पच्यते नरकाग्निना।
(सोऽहमात्मानमाधास्ये नरकान्मुच्यतां गुरु:।) | | | अनुवाद | तब पुरोहित नरक की अग्नि से और भी अधिक पीड़ित होकर बोला, "हे राजन! यह मेरे द्वारा आपके निमित्त किए गए यज्ञ (आपके पुत्र के यज्ञ) का फल है।" यह सुनकर राजा सोमक ने धर्मराज से कहा, "हे प्रभु! मैं इस नरक में प्रवेश करूँगा। कृपया मेरे पुरोहित को छोड़ दीजिए। वे महापुरुष मेरे कारण ही नरक की अग्नि में जल रहे हैं। अतः मैं तो नरक में ही रहूँगा, परन्तु मेरे गुरु को इससे मुक्ति मिलनी चाहिए।" ॥12-13 1/2॥ | | Then the priest, being more tormented by the fire of hell, said, "O King! This is the result of the yagya (sacrifice of your son) that I had performed for you." Hearing this, King Somaka said to Dharmaraja, "O Lord! I will enter this hell. Please leave my priest. Those great men are burning in the fire of hell because of me. Therefore, I will keep myself in hell, but my Guru should be freed from it." ॥12-13 1/2॥ |
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