श्री महाभारत  »  पर्व 18: स्वर्गारोहण पर्व  »  अध्याय 2: देवदूतका युधिष्ठिरको नरकका दर्शन कराना तथा भाइयोंका करुण-क्रन्दन सुनकर उनका वहीं रहनेका निश्चय करना  »  श्लोक 51-52
 
 
श्लोक  18.2.51-52 
स तीव्रगन्धसंतप्तो देवदूतमुवाच ह।
गम्यतां तत्र येषां त्वं दूतस्तेषामुपान्तिकम्॥ ५१॥
न ह्यहं तत्र यास्यामि स्थितोऽस्मीति निवेद्यताम्।
मत्संश्रयादिमे दूता: सुखिनो भ्रातरो हि मे॥ ५२॥
 
 
अनुवाद
वहाँ की असह्य दुर्गन्ध से व्याकुल होकर उसने देवदूत से कहा, 'तुम जिनके दूत हो, उनके पास लौट जाओ। मैं वहाँ नहीं जाऊँगा। मैं यहीं रुका हूँ, अपने स्वामियों को यह बात बता दो। यहाँ रहने का कारण यह है कि मेरे दुःखी भाई-बन्धु मेरे यहाँ उपस्थित होने से सुख प्राप्त करें।'॥ 51-52॥
 
Distressed by the unbearable stench there, he said to the angel, 'Go back to those for whom you are a messenger. I will not go there. I have stayed here, inform your masters about this. The reason for staying here is that my distressed brothers and relatives get happiness by my presence here.'॥ 51-52॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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