श्री महाभारत  »  पर्व 15: आश्रमवासिक पर्व  »  अध्याय 37: नारदजीसे धृतराष्ट्र आदिके दावानलमें दग्ध हो जानेका हाल जानकर युधिष्ठिर आदिका शोक करना  »  श्लोक 27-28h
 
 
श्लोक  15.37.27-28h 
नैष मृत्युरनिष्टो नो नि:सृतानां गृहात् स्वयम्।
जलमग्निस्तथा वायुरथवापि विकर्षणम्॥ २७॥
तापसानां प्रशस्यन्ते गच्छ संजय मा चिरम्।
 
 
अनुवाद
‘संजय! हम स्वयं गृहस्थाश्रम त्यागकर यहाँ आए हैं, अतः इस प्रकार की मृत्यु हमारे लिए हानिकारक नहीं हो सकती। जल, अग्नि और वायु के संयोग से अथवा उपवास द्वारा प्राण त्यागना तपस्वियों के लिए श्रेयस्कर माना गया है; अतः अब तुम शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ। विलम्ब न करो।’॥27 1/2॥
 
‘Sanjaya! We ourselves have abandoned the grihasthashram and have come here, so this kind of death cannot be harmful for us. Giving up life by the combination of water, fire and air or by fasting is considered praiseworthy for ascetics; therefore now you should leave from here quickly. Do not delay’॥27 1/2॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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