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श्लोक 15.37.24-25  |
तमुवाच किलोद्विग्न: संजयो वदतां वर:॥ २४॥
राजन् मृत्युरनिष्टोऽयं भविता ते वृथाग्निना।
न चोपायं प्रपश्यामि मोक्षणे जातवेदस:॥ २५॥ |
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अनुवाद |
तब वक्ताओं में श्रेष्ठ संजय अत्यन्त व्याकुल होकर बोले, 'हे राजन! इस सांसारिक अग्नि में आपकी मृत्यु उचित नहीं है। (आपका शरीर 'आहवन' की अग्नि में भस्म हो जाना चाहिए।) किन्तु इस समय मुझे इस दावानल से मुक्ति का कोई उपाय नहीं दिखाई दे रहा है। |
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Then Sanjaya, the best of speakers, became very agitated and said, 'O King! It is not right that you should die in this worldly fire. (Your body should be cremated in the fire of 'Ahavan'.) But at this moment I cannot see any way to get rid of this forest fire. |
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