श्री महाभारत  »  पर्व 15: आश्रमवासिक पर्व  »  अध्याय 36: व्यासजीकी आज्ञासे धृतराष्ट्र आदिका पाण्डवोंको विदा करना और पाण्डवोंका सदलबल हस्तिनापुरमें आना  »  श्लोक 15-16
 
 
श्लोक  15.36.15-16 
रमे चाहं त्वया पुत्र पुरेव गजसाह्वये।
नाथेनानुगतो विद्वन् प्रियेषु परिवर्तिना॥ १५॥
प्राप्तं पुत्रफलं त्वत्त: प्रीतिर्मे परमा त्वयि।
न मे मन्युर्महाबाहो गम्यतां पुत्र मा चिरम्॥ १६॥
 
 
अनुवाद
‘पुत्र! तुम्हारे साथ रहकर तथा तुम जैसे रक्षक द्वारा सुरक्षित रहकर मुझे वैसा ही आनन्द हो रहा है जैसा पहले हस्तिनापुर में होता था। विद्वान्! मुझे तुमसे एक ऐसे पुत्र का वरदान मिला है जो सदैव प्रियजनों की सेवा में तत्पर रहता है। मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ। हे महाबाहु पुत्र! मुझे तुम्हारे प्रति किंचितमात्र भी क्रोध नहीं है; अतः तुम राजधानी में जाओ, अब विलम्ब न करो।॥ 15-16॥
 
‘Son! Living with you and being protected by a protector like you, I am feeling the same joy as I used to feel earlier in Hastinapur. Scholar! I have got the boon of a son from you who is always engaged in the service of loved ones. I love you very much. O mighty-armed son! I do not have even the slightest anger towards you; therefore, you should go to the capital, do not delay now.॥ 15-16॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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