श्री महाभारत  »  पर्व 15: आश्रमवासिक पर्व  »  अध्याय 30: कुन्तीका कर्णके जन्मका गुप्त रहस्य बताना और व्यासजीका उन्हें सान्त्वना देना  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  15.30.5 
तत: शापभयाद् विप्रमवोचं पुनरेव तम्।
एवमस्त्विति च प्राह पुनरेव स मे द्विज:॥ ५॥
 
 
अनुवाद
उनके वचन सुनकर मैंने शाप के भय से पुनः उन ऋषि से कहा - ‘हे प्रभु! ऐसा ही हो।’ तब वह ब्राह्मण पुनः मुझसे बोला -॥5॥
 
On hearing his words, out of fear of a curse, I once again said to that sage, 'O Lord! Let it be so.' Then the Brahmin again spoke to me -॥ 5॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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