श्री महाभारत  »  पर्व 15: आश्रमवासिक पर्व  »  अध्याय 3: राजा धृतराष्ट्रका गान्धारीके साथ वनमें जानेके लिये उद्योग एवं युधिष्ठिरसे अनुमति देनेके लिये अनुरोध तथा युधिष्ठिर और कुन्ती आदिका दु:खी होना  »  श्लोक 77
 
 
श्लोक  15.3.77 
गान्धारी त्वेव धर्मज्ञा मनसोद्वहती भृशम्।
दु:खान्यधारयद् राजन् मैवमित्येव चाब्रवीत्॥ ७७॥
 
 
अनुवाद
धर्म को जानने वाली गांधारी के हृदय में दुःख का भारी बोझ था। उसने अपने दुःख को दबा लिया और रोते हुए लोगों से कहा - 'ऐसा मत करो।'
 
Gandhari, who knew the Dharma, was carrying a heavy burden of sorrow in her heart. She suppressed her sorrows and while crying told the people - 'Don't do this'.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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