श्री महाभारत  »  पर्व 15: आश्रमवासिक पर्व  »  अध्याय 3: राजा धृतराष्ट्रका गान्धारीके साथ वनमें जानेके लिये उद्योग एवं युधिष्ठिरसे अनुमति देनेके लिये अनुरोध तथा युधिष्ठिर और कुन्ती आदिका दु:खी होना  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  15.3.1 
वैशम्पायन उवाच
युधिष्ठिरस्य नृपतेर्दुर्योधनपितुस्तदा।
नान्तरं ददृशू राज्ये पुरुषा: प्रणयं प्रति॥ १॥
 
 
अनुवाद
वैशम्पायन कहते हैं, 'हे जनमेजय! राज्य की प्रजा ने राजा युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र के पारस्परिक प्रेम में कभी कोई अंतर नहीं देखा।'
 
Vaishmpayana says, 'O Janamejaya! The people of the kingdom never saw any difference in the mutual love between King Yudhishthira and Dhritarashtra.'
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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