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श्लोक 15.18.25  |
स तेषामतिदु:खोऽभून्निवास: प्रथमेऽहनि।
शोचतां शोच्यमानानां पौरजानपदैर्जनै:॥ २५॥ |
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अनुवाद |
धृतराष्ट्र आदि को यह प्रथम दिन का प्रवास बड़ा ही दुःखदायी प्रतीत हुआ, जिनके लिए नगर और जनपद की प्रजा शोक कर रही थी और जो स्वयं भी शोक में डूबे हुए थे ॥ 25॥ |
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This first day's stay seemed very painful to Dhritarashtra and others, for whom the people of the city and the district were mourning and who themselves were also immersed in grief. ॥ 25॥ |
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इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि अष्टादशोऽध्याय:॥ १८॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १८॥
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