श्री महाभारत  »  पर्व 15: आश्रमवासिक पर्व  »  अध्याय 16: धृतराष्ट्रका पुरवासियोंको लौटाना और पाण्डवोंके अनुरोध करनेपर भी कुन्तीका वनमें जानेसे न रुकना  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  15.16.12 
आयसं हृदयं नूनं मन्दाया मम पुत्रक।
यत् सूर्यजमपश्यन्त्या: शतधा न विदीर्यते॥ १२॥
 
 
अनुवाद
बेटा! मेरा अभागा हृदय निश्चय ही लोहे का बना है, तभी तो आज सूर्यपुत्र कर्ण को न देखकर भी वह सैकड़ों टुकड़ों में नहीं टूटता॥ 12॥
 
Son! My unfortunate heart is certainly made of iron; that is why even after not seeing the Sun's son Karna today, it does not break into hundreds of pieces.॥ 12॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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