|
|
|
श्लोक 15.10.53  |
प्राञ्जलि: पूजयामास तं जनं भरतर्षभ।
ततो विवेश भवनं गान्धार्या सहितो निजम्।
व्युष्टायां चैव शर्वर्यां यच्चकार निबोध तत्॥ ५३॥ |
|
|
अनुवाद |
हे भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात धृतराष्ट्र ने हाथ जोड़कर ब्राह्मणदेव का स्वागत किया और गांधारी के साथ अपने महल को चले गए। जब रात्रि बीत गई और प्रातःकाल हुआ, तब उन्होंने जो कुछ किया, वह मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो। |
|
O best of the Bharatas! Thereafter Dhritarashtra welcomed the Brahmin God with folded hands and went back to his palace with Gandhari. When the night passed and the morning came, I am telling you what he did, listen. |
|
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि प्रकृतिसान्त्वने दशमोऽध्याय:॥ १०॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें धृतराष्ट्रको प्रजाद्वारा दी गयी सान्त्वनाविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १०॥
|
|
|
✨ ai-generated |
|
|