श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 51: तपस्याका प्रभाव, आत्माका स्वरूप और उसके ज्ञानकी महिमा तथा अनुगीताका उपसंहार  »  श्लोक 7-9
 
 
श्लोक  14.51.7-9 
अव्यक्तादि विशेषान्तं सहस्थावरजङ्गमम्।
सूर्यचन्द्रप्रभालोकं ग्रहनक्षत्रमण्डितम्॥ ७॥
नदीपर्वतजालैश्च सर्वत: परिभूषितम्।
विविधाभिस्तथा चाद्भि: सततं समलंकृतम्॥ ८॥
आजीवं सर्वभूतानां सर्वप्राणभृतां गति:।
एतद् ब्रह्मवनं नित्यं तस्मिंश्चरति क्षेत्रवित्॥ ९॥
 
 
अनुवाद
यह संसार ब्रह्मवन है। अव्यक्त प्रकृति ही इसका आदि है। इसका विस्तार पंच महाभूतों, दस इन्द्रियों और एक मन - इन सोलह विशेषताओं तक है। यह जड़-चेतन प्राणियों से परिपूर्ण है। यह सूर्य, चन्द्रमा आदि के प्रकाश से प्रकाशित है। यह ग्रहों और नक्षत्रों से सुशोभित है। यह चारों ओर नदियों और पर्वतों के समूहों से सुशोभित है। यह सदैव नाना प्रकार के जल से सुशोभित रहता है। यही समस्त प्राणियों का जीवन और समस्त प्राणियों की गति है। क्षेत्रज्ञ पुरुष इस ब्रह्मवन में विचरण करते हैं।
 
This world is a Brahma forest. Unmanifested nature is its beginning. It extends to the five great elements, ten senses and one mind – these sixteen specialities. It is full of animate and inanimate beings. It is illuminated by the light of the sun and the moon etc. It is decorated with planets and stars. It is decorated on all sides with groups of rivers and mountains. It is always decorated with various types of water. This is the life of all beings and the movement of all beings. The knower of the field roams in this Brahma forest. 7-9.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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