श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 46: ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन  »  श्लोक 56-58
 
 
श्लोक  14.46.56-58 
एतावदन्तवेलायां परिसंख्याय तत्त्ववित्॥ ५६॥
ध्यायेदेकान्तमास्थाय मुच्यतेऽथ निराश्रय:।
निर्मुक्त: सर्वसङ्गेभ्यो वायुराकाशगो यथा॥ ५७॥
क्षीणकोशो निरातङ्कस्तथेदं प्राप्नुयात् परम्॥ ५८॥
 
 
अनुवाद
जो तत्त्वज्ञानी अन्त में इन तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है और एकान्त में बैठकर भगवान् का ध्यान करता है, वह सब प्रकार की आसक्तियों से रहित, पाँचों कोशों से रहित, निर्भय और निर्लिप्त हो जाता है, आकाश में चलने वाली वायु के समान भगवान् को प्राप्त हो जाता है ॥56-58॥
 
The philosopher who attains the knowledge of these elements at the end and sits alone and meditates on God, becomes free from all kinds of attachments, free from the five cells, fearless and destitute, like the wind moving in the sky, and attains God. 56-58॥
 
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि गुरुशिष्यसंवादे षट्चत्वारिंशोऽध्याय:॥ ४६॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें गुरु-शिष्य-संवादविषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ४६॥

 
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