श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 46: ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन  »  श्लोक 54-56h
 
 
श्लोक  14.46.54-56h 
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च महाभूतानि पञ्च च॥ ५४॥
मनो बुद्धिरहंकारमव्यक्तं पुरुषं तथा।
एतत् सर्वं प्रसंख्याय यथावत् तत्त्वनिश्चयात् ॥ ५५॥
तत: स्वर्गमवाप्नोति विमुक्त: सर्वबन्धनै:।
 
 
अनुवाद
जो मनुष्य इन्द्रियों, उनके विषयों, पंचमहाभूतों, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पुरुष का चिन्तन करता है और उनके स्वरूप को यथावत् निश्चय करता है, वह सब बन्धनों से मुक्त होकर स्वर्ग को प्राप्त होता है ॥54-55 1/2॥
 
The man who thinks about the senses, their objects, the five great elements, the mind, the intellect, the ego, nature and the man, and determines their essence as it is, becomes free from all bondages and attains heaven. 54-55 1/2॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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