श्री महाभारत » पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व » अध्याय 46: ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन » श्लोक 53-54h |
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| | श्लोक 14.46.53-54h  | तथैनमवमन्येरन् परे सततमेव हि।
यथावृत्तश्चरेच्छान्त: सतां धर्मानकुत्सयन्॥ ५३॥
य एवं वृत्तसम्पन्न: स मुनि: श्रेष्ठ उच्यते। | | | अनुवाद | जिस कार्य से समाज में दूसरों का अनादर हो, उसे करते रहना चाहिए, परन्तु सज्जनों के धर्म की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए। जो इस प्रकार के आचरण से युक्त है, उसे महामुनि कहते हैं। | | One should keep doing that work which brings disrespect to others in the society, but should never criticise the religion of the virtuous. One who is endowed with this kind of behaviour is called a great sage. 53 1/2. |
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