श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 46: ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन  »  श्लोक 50-51
 
 
श्लोक  14.46.50-51 
न तत्र क्रमते बुद्धिर्नेन्द्रियाणि न देवता:।
वेदा यज्ञाश्च लोकाश्च न तपो न व्रतानि च॥ ५०॥
यत्र ज्ञानवतां प्राप्तिरलिङ्गग्रहणा स्मृता।
तस्मादलिङ्गधर्मज्ञो धर्मतत्त्वमुपाचरेत्॥ ५१॥
 
 
अनुवाद
उस आत्मतत्त्व में बुद्धि, इन्द्रियाँ और देवता भी प्रवेश नहीं कर सकते । जहाँ केवल ज्ञानी महात्मा ही विचरण करते हैं, वहाँ वेद, यज्ञ, लोक, तप और व्रत भी प्रवेश नहीं करते; क्योंकि वह बाह्य चिह्नों से रहित माना गया है । अतः बाह्य चिह्नों से रहित धर्म को जानकर उसका यथावत् पालन करना चाहिए । 50-51॥
 
The intellect, senses and even gods do not have access to that soul principle. Where only knowledgeable Mahatmas move, there Vedas, Yagya, Lok, penance and fasting also do not enter; Because it is considered to be devoid of external marks. Therefore, after knowing the religion which is devoid of external signs, it should be followed accurately. 50-51॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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