श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 46: ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन  »  श्लोक 47-49
 
 
श्लोक  14.46.47-49 
अपादपाणिपृष्ठं तदशिरस्कमनूदरम्।
प्रहीणगुणकर्माणं केवलं विमलं स्थिरम्॥ ४७॥
अगन्धमरसस्पर्शमरूपाशब्दमेव च।
अनुगम्यमनासक्तममांसमपि चैव यत् ॥ ४८॥
निश्चिन्तमव्ययं दिव्यं कूटस्थमपि सर्वदा।
सर्वभूतस्थमात्मानं ये पश्यन्ति न ते मृता:॥ ४९॥
 
 
अनुवाद
जो मनुष्य आत्मा को हाथ, पैर, पीठ, सिर और उदर आदि इन्द्रियों से रहित, गुण और कर्मों से हीन, एकनिष्ठ, शुद्ध, स्थिर, रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से रहित, जानने योग्य, अनासक्त, मांस-पिंड से रहित, निश्चिन्त, अविनाशी, दिव्य और सम्पूर्ण प्राणियों में सदा विद्यमान जानते हैं, वे कभी नहीं मरते ॥47-49॥
 
Those people who know the soul to be devoid of organs like hands, legs, back, head and abdomen, inferior to qualities and actions, single, pure, stable, free from form, taste, smell, touch and sound, knowable, unattached, free from flesh and blood body, carefree, indestructible, divine and always present in all living beings, they never die. 47-49॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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