श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 46: ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  14.46.17 
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ वा पुन:।
य इच्छेन्मोक्षमास्थातुमुत्तमां वृत्तिमाश्रयेत्॥ १७॥
 
 
अनुवाद
चाहे ब्रह्मचारी हो, गृहस्थ हो या वानप्रस्थ हो, जो मोक्ष चाहता है, उसे उत्तम वृत्ति अपनानी चाहिए ॥17॥
 
Be it a brahmacārī, a householder or a vanaprastha (a monk), who desires liberation, he must adopt the best attitude. ॥17॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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