श्री महाभारत » पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व » अध्याय 46: ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन » श्लोक 1-2 |
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| | श्लोक 14.46.1-2  | ब्रह्मोवाच
एवमेतेन मार्गेण पूर्वोक्तेन यथाविधि।
अधीतवान् यथाशक्ति तथैव ब्रह्मचर्यवान्॥ १॥
स्वधर्मनिरतो विद्वान् सर्वेन्द्रिययतो मुनि:।
गुरो: प्रियहिते युक्त: सत्यधर्मपर: शुचि:॥ २॥ | | | अनुवाद | ब्रह्माजी बोले - महर्षि! इस प्रकार पूर्वोक्त मार्ग के अनुसार गृहस्थ पुरुष को उचित आचरण करना चाहिए और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अपनी क्षमतानुसार अध्ययन करते हुए धर्म में तत्पर रहना चाहिए, विद्वान बनना चाहिए, समस्त इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए, मुनि व्रत का पालन करना चाहिए, गुरु के हित में तत्पर रहना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए तथा धर्मनिष्ठ एवं धार्मिक रहना चाहिए। 1-2॥ | | Brahmaji said – Maharishi! Thus, according to the aforesaid path, a householder should conduct himself properly and a man who follows the vow of celibacy while studying to the best of his ability, should remain active in his religion, become a scholar, keep all the senses under his control, observe the vow of a sage, remain engaged in doing good to his Guru, speak the truth and remain pious and pious. 1-2॥ |
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