श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 32: ब्राह्मणरूपधारी धर्म और जनकका ममत्वत्यागविषयक संवाद  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  14.32.15 
जनक उवाच
अन्तवन्त इहावस्था विदिता: सर्वकर्मसु।
नाध्यगच्छमहं तस्मान्ममेदमिति यद् भवेत्॥ १५॥
 
 
अनुवाद
जनक बोले - "ब्रह्मन्! मैं भलीभाँति जानता हूँ कि इस संसार में कर्मानुसार जो भी गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनका आदि और अन्त होता है। अतः मैं ऐसी कोई वस्तु नहीं देखता जो मेरी हो।" ॥15॥
 
Janaka said, "Brahman! I know very well that all the states that one gets in this world according to one's deeds have a beginning and an end. Therefore, I do not see anything that can be mine." ॥15॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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