श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 32: ब्राह्मणरूपधारी धर्म और जनकका ममत्वत्यागविषयक संवाद  »  श्लोक 10-11
 
 
श्लोक  14.32.10-11 
ततो मे कश्मलस्यान्ते मति: पुनरुपस्थिता॥ १०॥
तदा न विषयं मन्ये सर्वो वा विषयो मम।
आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम॥ ११॥
 
 
अनुवाद
फिर उस मोह को चिन्तन द्वारा नष्ट करके मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मेरा कहीं भी राज्य नहीं है अथवा मेरा राज्य सर्वत्र है। एक दृष्टि से तो यह शरीर भी मेरा नहीं है और दूसरी दृष्टि से तो यह सम्पूर्ण पृथ्वी ही मेरी है॥10-11॥
 
Then after destroying that delusion through contemplation, I have come to the conclusion that I do not have a kingdom anywhere or my kingdom is everywhere. From one point of view, even this body is not mine and from another point of view, this entire earth is mine.॥10-11॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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