श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 28: ज्ञानी पुरुषकी स्थिति तथा अध्वर्यु और यतिका संवाद*  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  14.28.5 
नित्यस्य चैतस्य भवन्त्यनित्या
निरीक्ष्यमाणस्य बहुस्वभावान्।
न सज्जते कर्मसु भोगजालं
दिवीव सूर्यस्य मयूखजालम्॥ ५॥
 
 
अनुवाद
इस इन्द्रिय आदि को देखने वाले, नाना प्रकार के स्वभाव वाले सनातन आत्मा के लिए सभी भोग अनित्य हो जाते हैं। इसलिए वे भोगों के समूह उस विद्वान को उसके कर्मों में उसी प्रकार लिप्त नहीं कर सकते, जैसे आकाश में सूर्य की किरणों का समुदाय सूर्य को लिप्त नहीं कर सकता॥5॥
 
All pleasures become impermanent for this eternal soul who sees the senses etc., whose nature is of many types. Therefore, those groups of pleasures cannot indulge that scholar in his deeds in the same way as the community of sunrays in the sky cannot indulge the sun. 5॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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