श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 27: अध्यात्मविषयक महान् वनका वर्णन  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  14.27.21 
नदीनां सङ्गमश्चैव वैताने समुपह्वरे।
स्वात्मतृप्ता यतो यान्ति साक्षादेव पितामहम्॥ २१॥
 
 
अनुवाद
उनके परम रहस्यमय हृदयस्थान में नदियों का संगम भी क्षण भर के लिए होता है। जहाँ योगरूपी यज्ञ का निरन्तर विस्तार होता रहता है। वे पितामह के साक्षात् स्वरूप हैं। आत्मज्ञान से संतुष्ट व्यक्ति ही उसे प्राप्त करते हैं। 21॥
 
The confluence of rivers also happens briefly in his very mysterious heart space. Where the Yagya in the form of Yoga continues to expand. He is the true form of Pitamah. Only those who are satisfied with self-knowledge attain it. 21॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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