श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 27: अध्यात्मविषयक महान् वनका वर्णन  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  14.27.16 
येऽधिगच्छन्ति तं सन्तस्तेषां नास्ति भयं पुन:।
ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यक् च तस्य नान्तोऽधिगम्यते॥ १६॥
 
 
अनुवाद
जो सज्जन पुरुष उस वन में शरण लेते हैं, उन्हें फिर कभी भय नहीं होता। वह वन ऊपर-नीचे, इधर-उधर, सर्वत्र फैला हुआ है। उसका कहीं कोई अंत नहीं है ॥16॥
 
The noble men who take shelter in that forest never have to fear again. That forest is spread everywhere, above and below and here and there. It has no end anywhere. ॥16॥
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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