श्री महाभारत  »  पर्व 14: आश्वमेधिक पर्व  »  अध्याय 25: चातुर्होम यज्ञका वर्णन  »  श्लोक 12-14h
 
 
श्लोक  14.25.12-14h 
मनसा गम्यते यच्च यच्च वाचा निगद्यते।
श्रोत्रेण श्रूयते यच्च चक्षुषा यच्च दृश्यते॥ १२॥
स्पर्शेन स्पृश्यते यच्च घ्राणेन घ्रायते च यत् ।
मन:षष्ठानि संयम्य हवींष्येतानि सर्वश:॥ १३॥
गुणवत्पावको मह्यं दीव्यतेऽन्त:शरीरग:।
 
 
अनुवाद
जो मन से ज्ञात होता है, जो वाणी द्वारा व्यक्त होता है, जो कानों से सुना जाता है, आँखों से देखा जाता है, त्वचा से स्पर्श किया जाता है और नाक से सूंघा जाता है। इन संकल्प आदि रूपी छः विषयों को मन और छः इन्द्रियों आदि को वश में करके अपने भीतर जला देना चाहिए। उस होम के अधिष्ठाता परमेश्वर का पुण्यमय, पवित्र स्वरूप मेरे शरीर और मन में प्रकाशित हो रहा है। 12-13 1/2"
 
Which is aware of the mind, which is expressed through speech, which is heard by the ears and seen by the eyes, which is touched by the skin and smelled by the nose. These six objects in the form of intentions etc. should be burnt within oneself by controlling the mind and six senses etc. The virtuous, holy form of God, who is the founder of that Homa, is getting illuminated within my body and mind. 12-13 1/2"
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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